Wednesday 13 July 2016

कश्मीर का दर्द (कश्मीर में चल रही ताजा घटनाओं पर कवि विशाल अग्रवाल की कविता )

मैं बुजुर्गों के ख़्वाबों के ताबीर हूँ
जिन्दा जन्नत की मैं एक तस्वीर हूँ
सौ दफा कह चुकी फिर से कहती हूँ मैं 
हां मैं भारत की ही सिर्फ जागीर हूँ
हां मैं कश्मीर हूँ , हाँ मैं कश्मीर हूँ
मेरे बेटों ने दहशत की राहें चुनीं
लड़खड़ाये तो गैरों की बाहें चुनीं
अपने बेटों की गोली से मरते हुए
मैंने अपने ही बेटों की आहें सुनीं
हो गयी है जो अब पर्वतों से बड़ी
और पिघलेगी न ऐसी एक पीर हूँ
हां मैं कश्मीर हूँ , हां मैं कश्मीर हूँ
फक्र से सर हमारा उठाया भी है
बाढ़ आयी तो हमको बचाया भी है
भूल हमने करी चाहे कितनी बड़ी
बाप बनकर के उसको भुलाया भी है
क्या बताऊँ तुम्हें क्या है हालत मेरी
अपने हाथों से खिंचता हुआ चीर हूँ
हां मैं कश्मीर हूँ , हां मैं कश्मीर हूँ
दर्द दिल में दबाये बिलखती रही
मुंह छुपाये हुए मैं सिसकती रही
देख कर अपने बेटों की गद्दारियां
बेटा कहने से उनको हिचकती रही
अपने ही पाँव जिसने हैं जकड़े हुए
जंग खायी हुई ऐसी जंजीर हूँ
हाँ मैं कश्मीर हूं , हां मैं कश्मीर हूँ
कल तलक स्वर्ग थी अब मैं सूनी हुई
गम दिए इस कदर गम से दूनी हुई
मेरी इससे बड़ी बदनसीबी है क्या
सब ये कहते हैं घाटी तो खूनी हुई
गम बहुत हैं मगर मैं बताऊँ किसे
दोनों आँखों से बहता हुआ नीर हूँ
हां मैं कश्मीर हूँ , हां मैं कश्मीर हूं
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रचनाकार-
कवि विशाल अग्रवाल "अग्रवंशी"

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