Wednesday 20 May 2015

मिलेगी मंजिल प्यार की

मत छोड़ राह यार की, मत छोड़ चाह दीदार की
तू रख यकीं खुद पे, मिलेगी मंजिल प्यार की
ये निगोड़ी दुनिया रस्ते में कांटे बिछाती है
चाहे लाख प्यार को रोकना, पर रोक न ये पाती है
हद है ये ऐतबार की, दुल्हन के सोलह श्रृंगार की
कलियों में कचनार की, मिलेगी मंजिल प्यार की
मीरा हुई दीवानी भगवन के एक स्वरुप की
शबरी को मिले श्री राम थे चाहे लाख वो कुरूप थी
एक नजर जो मिले  दिलदार की, उम्र पूरी हो जाये प्यार की
सावन में सौ सौ बहार की, मिलेगी मजिल प्यार की

Monday 23 February 2015

Sochta hu ai jindgi

Sochta hu ai jindgi thoda to tu asan ho !
Jarro me rah gujar hai kabhi to meri pahchan ho !!
Ye khel dilo k ab hamse khele Nh jate !
Lechal mujhe ai asman jis taraf mera jahan ho !!
Tujhe pata nahi hai par mjhe chahiye aye jindgi !
Thodi to khushi mere uske darmyan ho !!
WO bewfa nikli to chhod di hamne duniya !
Lao ab wo salla jisme mera saman ho !!
Nikal to aye ho dur jamane ki najro se bachkar "Rahul" !
Ab dhundhoge kaha usko jo teri dil e jaan ho !!

Friday 26 December 2014

अदा देखो, नक़ाबे-चश्म वो कैसे उठाते हैं

अदा देखो, नक़ाबे-चश्म वो कैसे उठाते हैं,
अभी तो पी नहीं फिर भी क़दम क्यों डगमगाते हैं?

ज़रा अंदाज़ तो देखो, न है तलवार हाथों में,
हमारा दिल ज़िबह कर, ख़ून से मेंहदी रचाते हैं।

हमें मंज़ूर है गर, ग़ैर से भी प्यार हो जाए,
कमज़कम सीख जाएँगी कि दिल कैसे लगाते हैं।

सुना है आज वो हम से ख़फ़ा हैं, बेरुख़ी भी है,
नज़र से फिर नज़र हर बार क्यों हम से मिलाते हैं?

हमारी क्या ख़ता है, आज जो ऐसी सज़ा दी है,
ज़रा सा होश आता है मगर फिर भी पिलाते हैं।

ज़रा तिरछी नज़र से आग कुछ ऐसी लगा दी है,
बुझे ना ज़िन्दगी भर, रात-दिन दिल को जलाते हैं।

वफ़ा के इम्तहाँ में जान ले ली, ये भी ना देखा
किसी की लाश के पहलू में खंजर भूल जाते हैं।

अजीब शख़्स हूँ मैं उसको चाहने वाला

अजीब शख़्स हूँ मैं उसको चाहने वाला
जो आदतन ही दिलों को है तोड़्ने वाला

मैं पी रहा हूँ बड़े ज़र्फ़ से उसी दिन से
कि जब से कोई नहीं मुझको रोकने वाला

बहुत उदास हुआ मेरी चुप्पियों से वही
हर एक बात पे रह-रह के टोकने वाला

मैं उड़ गया तो मेरे लौटने को तरसेगा
मेरे परों को सुबह शाम तोलने वाला

वो लाख मुझसे कहें, मिन्नतें करें लेकिन
मैं अब के भेद नहीं कोई खोलने वाला

मेरे सिवाए कोई और हो नहीं सकता
मेरे वजूद को मिट्टी में रोलने वाला

मैं आइने की तरह क्यूँ फ़िज़ूल में टूटूँ
कुछ इस अदा से मैं अब सच हूँ बोलने वाला

Source: Prafull Parvez

अगर हवाओं के रुख मेहरबाँ नहीं होते

अगर हवाओं के रुख मेहरबाँ नहीं होते
तो बुझती आग के तेवर जवाँ नहीं होते

हमें क़ुबूल जो सारे जहाँ नहीं होते
मियाँ यकीन करो तुम यहाँ नहीं होते

दिलों पे बर्फ जमीं है लबों पे सहरा है
कहीं खुलूस के झरने रवाँ नहीं होते

हम इस ज़मीन को अश्कों से सब्ज़ करते हैं
ये वो चमन है जहाँ बागबाँ नहीं होते

कहाँ नहीं हैं हमारे भी ख़ैरख्वाह , मगर
जहाँ गुहार लगाओ वहाँ नहीं होते

इधर तो आँख बरसती है, दिल धड़कता है
ये सानिहात तुम्हारे यहाँ नहीं होते

वफा का ज़िक्र चलाया तो हंस के बोले वो
फ़ुज़ूल काम हमारे यहाँ नहीं होते
Writter: मयंक अवस्थी

अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता


अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता
तो दरमियाँ न मुक़द्दर का फ़ैसला रखता

वो मुझ को भूल चुका अब यक़ीन है वरना
वफ़ा नहीं तो जफ़ाओं का सिलसिला रखता

भटक रहे हैं मुसाफ़िर तो रास्ते गुम हैं
अँधेरी रात में दीपक कोई जला रखता

महक महक के बिखरती हैं उस के आँगन में
वो अपने घर का दरीचा अगर खुला रखता

अगर वो चाँद की बस्ती का रहने वाला था
तो अपने साथ सितारों का क़ाफ़िला रखता

जिसे ख़बर नहीं ख़ुद अपनी ज़ात की 'राहुल'
वो दूसरों का भला किस तरह पता रखता
Source: Iffat Zarin

अँगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ

अँगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ
देखा जो मुझ को छोड़ दिए मुस्कुरा के हाथ

बे-साख़्ता निगाहें जो आपस में मिल गई
क्या मुँह पर उस ने रख लिए आँखें चुरा के हाथ

ये भी नया सितम है हिना तो लगाएँ ग़ैर
और उस की दाद चाहें वो मुझ को दिखा के हाथ

बे-इख़्तियार हो के जो मैं पाँव पर गिरा
ठोड़ी के निचे उस ने धरा मुस्कुरा के हाथ

गर दिल को बस में पाएँ तो नासेह तेरी सुनें
अपनी तो मर्ग ओ ज़ीस्त है उस बे-वफ़ा के हाथ

वो जानुओं में सीना छुपाना सिमट के हाए
और फिर सँभालना वो दुपट्टा छुड़ा के हाथ

ऐ दिल कुछ और बात की रग़बत न दे मुझे
सुननी पडेंगी सैंकड़ों उस को लगा के हाथ

वो कुछ किसी का कह के सताना सदा मुझे
वो खींच लेना पर्दे से अपना दिखा के हाथ

देखा जो कुछ रूका मुझे तो किसी तपाक से
गर्दन में मेरी डाल दिए आप आ के हाथ

फिर क्यूँ न चाक हो जो हैं ज़ोर-आज़माइयाँ
बाँधूंगा फिर दुपट्टा से उस बे-ख़ता के हाथ

कूचे से तेरे उट्ठें तो फिर जाएँ हम कहाँ
बैठे हैं याँ तो दोनों जहाँ से उठा के हाथ

पहचाना फिर तो क्या ही निदामत हुई उन्हें
पंडित समझ के मुझ को और अपना दिखा के हाथ

देना वो उस का साग़र-ए-मय याद है ‘निज़ाम’
मुँह फेर कर उधर को इधर को बढ़ा के हाथ