Friday, 26 December 2014

अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता


अगर वो मिल के बिछड़ने का हौसला रखता
तो दरमियाँ न मुक़द्दर का फ़ैसला रखता

वो मुझ को भूल चुका अब यक़ीन है वरना
वफ़ा नहीं तो जफ़ाओं का सिलसिला रखता

भटक रहे हैं मुसाफ़िर तो रास्ते गुम हैं
अँधेरी रात में दीपक कोई जला रखता

महक महक के बिखरती हैं उस के आँगन में
वो अपने घर का दरीचा अगर खुला रखता

अगर वो चाँद की बस्ती का रहने वाला था
तो अपने साथ सितारों का क़ाफ़िला रखता

जिसे ख़बर नहीं ख़ुद अपनी ज़ात की 'राहुल'
वो दूसरों का भला किस तरह पता रखता
Source: Iffat Zarin

अँगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ

अँगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ
देखा जो मुझ को छोड़ दिए मुस्कुरा के हाथ

बे-साख़्ता निगाहें जो आपस में मिल गई
क्या मुँह पर उस ने रख लिए आँखें चुरा के हाथ

ये भी नया सितम है हिना तो लगाएँ ग़ैर
और उस की दाद चाहें वो मुझ को दिखा के हाथ

बे-इख़्तियार हो के जो मैं पाँव पर गिरा
ठोड़ी के निचे उस ने धरा मुस्कुरा के हाथ

गर दिल को बस में पाएँ तो नासेह तेरी सुनें
अपनी तो मर्ग ओ ज़ीस्त है उस बे-वफ़ा के हाथ

वो जानुओं में सीना छुपाना सिमट के हाए
और फिर सँभालना वो दुपट्टा छुड़ा के हाथ

ऐ दिल कुछ और बात की रग़बत न दे मुझे
सुननी पडेंगी सैंकड़ों उस को लगा के हाथ

वो कुछ किसी का कह के सताना सदा मुझे
वो खींच लेना पर्दे से अपना दिखा के हाथ

देखा जो कुछ रूका मुझे तो किसी तपाक से
गर्दन में मेरी डाल दिए आप आ के हाथ

फिर क्यूँ न चाक हो जो हैं ज़ोर-आज़माइयाँ
बाँधूंगा फिर दुपट्टा से उस बे-ख़ता के हाथ

कूचे से तेरे उट्ठें तो फिर जाएँ हम कहाँ
बैठे हैं याँ तो दोनों जहाँ से उठा के हाथ

पहचाना फिर तो क्या ही निदामत हुई उन्हें
पंडित समझ के मुझ को और अपना दिखा के हाथ

देना वो उस का साग़र-ए-मय याद है ‘निज़ाम’
मुँह फेर कर उधर को इधर को बढ़ा के हाथ

Wednesday, 24 December 2014

जाड़ा बहुत सतावत बा

जाड़ा बहुत सतावत बा

सरसर हवा बाण की नाईं
थर थर काँपैं बाबू माई
तपनी तापैं लोग लुगाई
कोहिरा छंटत नहीं बा भाई
चहियै सबै जियावत बा
जाड़ा बहुत सतावत बा

गरमी असौं बराइस खीस
जाड़ा भय बा ओसे बीस
जौ ना रोकिहैं अब जगदीस
मरि जइहैं बुढ़ये दस बीस
जियरा बहुत जरावत बा
जाड़ा बहुत सतावत बा

माछी मच्छर भएन अलोप
पहिने बाटै सब कनटोप
बरफ किहे बा अइसन कोप
गाँव भयल सरवा यूरोप
केहु ना देखै आवत बा
जाड़ा बहुत सतावत बा

Funny Winter
Source: Unknown

Sunday, 21 December 2014

तेरे बिना बेस्वाद जी जिन्दगी

तेरे बिना बेस्वाद जी जिन्दगी ...खाए जा रहा हूँ 
मै बस जीने की अपनी भूख, मिटायें जा रहा हूँ |

तुझ को देख  कर किया था वादा हमेशा मुस्कराने का 
बस वोही  अधूरी मोहब्बत अब तक निभाए जा रहा हूँ 
तेरे बिना बेस्वाद जी जिन्दगी ...खाए जा रहा हूँ |


चाँद को देखा नहीं , तेरे चेहरे को देखने के बाद
चांदनी रात में सिर्फ , तारों से काम चला रहा हूँ 
तेरे बिना बेस्वाद जी जिन्दगी ...खाए जा रहा हूँ |
यूँ अकेले अकेले जीना भी कोई  जीना है ? 
जिन्दा हूँ... खुद को भरमाये जा रहा हूँ 
तेरे बिना बेस्वाद जी जिन्दगी ...खाए जा रहा हूँ 
मै बस जीने की अपनी भूख, मिटायें जा रहा हूँ |

जब कुछ नहीं बना

जब कुछ नहीं बना तो हमने इतना कर दिया..
खाली हथेली पर दुआ का सिक्का धर दिया।

कब तक निभाते दुश्मनी हम वक्त से हर दिन
इस बार जब मिला वो तो बाँहों में भर लिया।

उस गाँव के बाशिंदों में अजीब रस्म है,
बच्ची के जन्म लेते ही गाते हैं मर्सिया।

बदली हुकूमतें मगर न किस्मतें बदलीं,
मुश्किलजदा लोगों को सबने दर बदर किया।

मुद्दा कोई हो, उसपे बोलना तो बहुत दूर,
संजीदा हो के सोचना भी बंद कर दिया।

रमेश तैलंग

मेरे क़ातिल

मेरे क़ातिल कोई और नहीं मेरे साथी निकले
मेरे जनाजे के साथ बनकर वो बाराती  निकले
रिश्तेदारों ने भी रिस्ता तोड़ दिया उस वक़्त
जब दौलत  कि तिजोरी से मेरे हाथ खली निकले
मेरे किस्मत ने ऐसे मुकाम पर लाकर छोड़ दिया
ग़ैर तो गैर मेरे अपने साये भी सवाली निकले
मोहबात का गुलासनं वीरान हो गया गुल के बगैर
सैयाद कोई और नहीं खुद माली निकले
जो लूट  लेते  थे  कभी  गरीबों के  कफ़न
आज वो जामने के नज़र में बड़े दानी निकले
इन पापियों के काफिला कहां निकला “राहुल”
कुछ लोग क़ाबा तो कुछ लोग काशी निकले

इंतज़ार बाक़ी है

इंतज़ार… इंतज़ार इंतज़ार बाक़ी है.
तुझे मिलने की ललक और खुमार बाक़ी है.

यूँ तो बीती हैं सदियाँ तेरी झलक पाए हुए.
जो होने को था वो ही करार बाक़ी है.

खाने को दौड़ रहा है जमाना आज हमें.
यहाँ पे एक नहीं कितने ही जबार बाक़ी है.

वोही दुश्मन है, है ख़ास वोही सबसे मेरा.
दूरियां बरकरार, फिर भी इंतेज़ार बाक़ी है.

यूँ तो है इश्क़ हर जगह, फैला अनंत तलक.
मगर वो खुशबु इश्क़े जाफरान बाक़ी है.

तेरा कसूर नहीं पीने वाले दोषी हैं.
तू ग़म को करने वाला कम महान साक़ी है.

पलटती नांव से पूछो क्या डरती लहरों से हो.
कहेगी न, क्योंकि संग में उसके कहार माझी है.

जहां पहुंचे न रवि, कवि पहुंच ही जाता है.
हम क्यों हैं अब भी यहाँ पर मलाल बाक़ी है.

जब भी लिखें तो जमाने के आंसू बहने लगे.
अभी लिखने में मेरे यार धार बाक़ी है.

कभी कोई, कभी कोई मिज़ाज़ बदले तो हैं.
जो था बचपन में, वोही मिज़ाज़ बाक़ी है.

यूँ तो हम भूल गए बात सारी, शख्स सभी.
जो भी है संग उसमें माँ की याद बाक़ी है.

तराने यूँ तो बहुत हैं जिन्हें हम सुन लेते.
जिसे सुनने की चाह, तराना-जहान बाक़ी है.

जो बैठे हैं अपने में सिमट के, उठ खड़े हों.
आगे तुम्हारे सारा आसमान बाक़ी है.

कहाँ ढूँढू ऐ 'राहुल ’ तुझको इन पहाड़ों में.
इनकी ऊँचाइयों में कहाँ प्यार बाक़ी है?