Tuesday 9 August 2016

नोकिया ट्यून.......... (कहानी)

डाकिये के हाथ से लिफाफा लेकर सुभाष बाबू ने जैसे ही खोला, चौंक गए। पटना विश्वविद्यालय से साक्षात्कार का बुलावा पत्र था। पहले डाकखाने की मुहर देखते हैं। हाँ ठीक है। जबसे कमलेसवा ने लड़की के नाम से प्रेमपत्र भेजा था तबसे चिट्ठी-पत्री से बहुत सजग रहते हैं। दौड़ के घर में गए और बाबूजी से बताया-बाबूजी! पटना विश्वविद्यालय से साक्षात्कार का लेटर आया है। मने अब हम एक कदम दूर हैं बस लेक्चरर बनने से। ठाकुर साहब ने मूँछों पर ताव देते हुए कहा-अरे हई खेती बारी कौन देखेगा जी?स्कूल मास्टरी करोगे? हमारे सात पुश्त में कोई किया है? नाक कटवा के ही चैन लेगा.... आरे घूम-फिर आने दीजिये न!कौन इसका हो ही जाएगा।ठकुराइन ने बात काटते हुए कहा था। हाँलाकि थोड़ा उदास हुए थे सुभाष बाबू।

सुबह सुबह जमादार अलगू और कैलाश ने सुभाष बाबू को जगाया-छोटे ठाकुर चलिए हम तैयार हैं। सुभाष बाबू ने बिस्तर से उठते हुए कहा-तुम लोग कहाँ जाओगे? जमादारों ने कहा-बड़े ठाकुर साहब का आदेश है कि हम भी साथ जाएंगे। सुभाष बाबू ने माथा ठोकते हुए कहा-अरे हम परीक्षा देने जा रहे हैं। बियाह करने नहीं कि बारात लेकर जाएंगे। जमादार कैलाश ने सुरती मलते हुए कहा-सुभाष बाबू बारात तो दिसम्बर में चलेगी ही आपकी। ठाकुर दीनानाथ सिंह की लड़की का फोटो आया था। बड़े ठाकुर साहब ने पास भी कर दिया है। सुभाष बाबू चौंकते हुए बोले-कौन ठाकुर दीनानाथ सिंह? आरे वही छपरा जिला वाले-जमादार ने बताया।
एस 5 में सीट नंबर तेरह पर बैग रखते हुए कैलाश ने कहा-इहै आपका सीट है सुभाष बाबू। इहाँ बैठिए। आ कोई कुछ खाने को दे तो आँख बचाकर खिड़की से फेंक दीजिएगा। आ जैसे जैसे टीसन बीतता जाए फोन कीजिएगा। आ खिड़की से हाथ-गोड़ बहरा मत निकालिएगा....अरे!अब हो गया-सुभाष बाबू ने हंसते हुए कहा।ट्रेन ने हार्न दे दिया है।सुभाष बाबू किताब निकाल लेते हैं। तभी एक लड़की अपनी माँ के साथ दौड़ती-भागती उनके सामने वाले सीट पर धम्म से बैठती है। सुभाष बाबू के मुँह से निकला- पगली।
पहला स्टेशन बीत गया है। सुभाष बाबू का ध्यान किताब में है-'बाले तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूं लोचन'।अचानक उनका ध्यान लड़की की तरफ जाता है-लड़की खिड़की से सिर टिकाए ऊंघ रही है। हवा से उसके बालों की एक लट उड़ रही है। सिल्क के सूट में इसका गोरापन और भी निखर गया है। सुभाष बाबू जान गए कि ई विको फेस क्रीम का कमाल है। लड़की की माँ ने सीट पर लेटते हुए कहा-बेटी थोड़ी देर के लिये उस सीट पर चली जा। मैं थोड़ा आराम कर लूँ। अब लड़की सुभाष बाबू के बगल में आकर बैठ गई है बीच में बैग रखा हुआ है। सुभाष बाबू पढ़ रहे हैं-"ओह!वह मुख!पश्चिम के व्योम-बीच जब घिरते हों घन श्याम"....लड़की फिर सीट से सिर टिकाकर सो रही है। पलकें आँखों पर स्थिर हैं। बड़ी घनी पलकें हैं इसकी जैसे अपना सागौन वाला बाग़...अचानक मोबाइल बज उठता है। नोकिया ट्यून की आवाज़ सुनाई देती है। सुभाष बाबू दाहिनी जेब टटोलते हैं, मोबाइल उसमें नहीं है। अब बाईं जेब में टटोल कर मोबाइल निकालते हैं। तब तक लड़की अपना मोबाइल निकाल कर बात करने लगती है-हाँ पिताजी ट्रेन मिल गई है। आ रहे हैं हम लोग...। सुभाष बाबू झेंप गए। दरअसल उनके मोबाइल में भी नोकिया ट्यून ही था न।

सुभाष बाबू फिर पढ़ रहे हैं-"सुन्दर बदन तर कोटिक मदन बारौं"...हाँ बर्थ से लटके हुए इस लड़की के पैर बहुत खूबसूरत हैं। ऊंगलियां तो जैसे साँचे में बनाए गए हैं। तभी फिर मोबाइल बज उठा। अबकी ध्यान नहीं हटाएंगे सुभाष बाबू। टोन है कि बजती ही जा रही है। सुभाष बाबू सोच रहे हैं कि लड़की फोन उठाती क्यों नहीं? तभी लड़की कहती है-हल्लो! आपका फोन बज रहा है। ओह!फिर मिस्टेक हो गया। इस बार सुभाष बाबू का ही फोन था। जल्दी से फोन उठाते हैं-हाँ बाबूजी हम ठीक हैं। ट्रेन चल रही है... जी....जी....।लड़की मुस्कुरा रही है। सुभाष बाबू फिर किताब में ध्यान लगाते हैं-"घनानंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक से दूसरो आँक नहीं"...ये सोच रहे हैं-नहीं नहीं लड़की और हम तो एक बराबर ही हैं। हमारी जोड़ी एकदम परफेक्ट रहेगी। बिल्कुल सीता-राम वाली। लेकिन तभी याद आया कि बाबूजी ने तो हमारी शादी तय कर दी है कहीं और। पता नहीं वो कैसी होगी? कुछ भी हो इस लड़की की तरह सुन्दर तो नहिए होगी। तो मना कर देंगे सुभाष बाबू उस शादी से। बहुत होगा तो ठाकुर साहब दोनाली बन्दूक तानेंगे। यही न? जमींदारों की लड़कियाँ मोटी होती हैं.... तभी सुभाष बाबू को लगा कि वो लड़की उन्हें देख रही है। शहनाई सी बजने लगती है कहीं उनके भीतर। वो फिर किताब पढ़ने लगते हैं-"दृग उरझत,टूटत कुटुम,जुरत चतुर चित प्रीति"...तभी लड़की ने कहा-सुनिए! छपरा स्टेशन आने वाला है मेरे मोबाइल में नेटवर्क ही नहीं। थोड़ा अपना दीजिएगा पिताजी से कह दें कि हम उतरने वाले हैं। सुभाष बाबू ने मोबाइल दे दिया,लड़की ने नंबर डायल किया और बोल दिया-पिताजी हम उतरने ही वाले हैं। आ जाइये स्टेशन पर।

छपरा आ गया है। लड़की की माँ भी उठकर बैठ गई है। कुछ चाय वाले अलग अलग बोलियों में चाय बेच रहे हैं। कुछ यात्रियों से एक दो टी टी लोग लहान बईठा रहे हैं।लड़की उतर कर चली गई है... नहीं नहीं सुभाष बाबू का चैन सूकून सब उतर कर चला गया है। किताब खुली है-"पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना, अंखियां दुखिया नहिं मानती हैं"।सुभाष बाबू खुद को दिलासा देते हैं-छोड़ो,कुछ प्रेम कहानियों की उम्र बहुत कम होती है। आँखों में आई नमी को रुमाल से साफ करते हैं और किताब बंद करके उसी लड़की के बारे में सोचने लगते हैं। एक घंटे बीत गए हैं अब पटना आने ही वाला है। तभी सुभाष बाबू का मोबाइल बजता है। वही नोकिया ट्यून!वो इधर उधर देखते हैं। काश कि फिर से वो लड़की यहीं होती।बुझे मन से फोन उठाते हैं-'ठाकुर साहब अच्छे से परीच्छा दीजिएगा'... फिर एक खनकती हुई हँसी। सुभाष बाबू पूछते हैं-कौन बोल रही हैं आप? उधर से आवाज़ आती है-ठाकुर दीनानाथ सिंह की लड़की प्रगति छपरा से। पर आपको मेरा नंबर कहां से मिला-इन्हें आश्चर्य होता है। प्रगति बताती है कि-हम ही बैठे थे आपके बगल में। हमने आपकी फोटो देखी थी तो पहचान गए। अम्मा ने आपको ध्यान से देखा ही नहीं नहीं तो वो भी पहचान जातीं। हमने आपके मोबाइल से अपनी सहेली राधा के यहाँ फोन किया था फिर उससे आप वाला नंबर माँग लिए।

सुभाष बाबू के आँखों में खुशी के आँसू हैं अब। कहना चाहते हैं कि- "आप बहुत सुन्दर हैं"....तब तक फोन कट जाता है।सुभाष बाबू के पैर अब जमीन पर नहीं हैं। तभी उनकी जेब में फिर नोकिया ट्यून बजने लगता है। जल्दी से फोन उठाकर कहते हैं-सुनिए! आप बहुत सुन्दर हैं... उधर की रौबीली आवाज़ गूंजती है-कौन सुन्दर है रे ससुरा? सुभाष बाबू जल्दी से नंबर देखते हैं-ओह! बाबूजी हैं। फिर मिस्टेक हो गया। जल्दी से कहते हैं-बाबूजी वो हम कह रहे थे कि आप मन के बड़े सुन्दर हैं। अच्छा ई सब छोड़ो। हम तुम्हारा बियाह छपरा के एक जमींदार साहब के यहाँ तय कर दिए हैं। लड़की का नाम प्रगति है और एम ए-बीए पास है।जल्दी जल्दी में बताना भूल गए-ठाकुर साहब ने कहा।
सुभाष बाबू ने खुशी छिपाते हुए कहा-बाबूजी! हम आज तक आपकी किसी बात से इन्कार किए हैं जो अब करेंगे? आप जहाँ तय कर देते, हम करते ही।ठाकुर साहब का सीना 'छप्पन इंच' वाला हो जाता है।

अब पटना स्टेशन आ गया है। ट्रेन धीरे हो रही है। सुभाष बाबू के जेब में फिर नोकिया ट्यून बजता है। निकाल कर नंबर देखते हैं। प्रगति का फोन है।उनके होठों पर मुस्कुराहट छा जाती है। अब नोकिया ट्यून में हमेशा की तरह रुखापन नहीं है.... एक शहनाई की मद्धम धुन भी है।

Wednesday 13 July 2016

हाल -ए- कश्मीर रचनाकार- संजय चौहान

लिखने को मैं हाल -ए- कश्मीर लिख दूं
आतंक के आकाओं की तकदीर लिख दूं..
पर क्या इससे बदलने वाला है कुछ भी ...
अगर हां ! तो मैं अपने दिल की पीर
लिख दूं...!

क्या ये पहली दफा है ,या फिर
आखिरी ...!
जब एक आतंकी के लिए रोई हो मस्जिद
बाबरी ...!!
गर ये सच है ! ,तो लगता है मै खुद को संजय
नही मीर लिख दूं..
इस हिन्द ए घाटी को स्वर्ग नही
,नर्क ए कश्मीर लिख दूं..

हिजबुल के आतंकी को तुमने बेटे सा मान दिया ..
लगा गले उस जिहादी को ,तुमने अपने मजहब को
बदनाम किया..
गर ये सच है !,तो लगता है मैं खुद को संजय
नही मीर लिख दूं...
इस हिन्द ए घाटी को
भागीरथी का अमृत नही
,बिष ए कश्मीर लिख दूं..

आंतक को पनाह देकर, तुमने घाटी को क्या इनाम
दिया ...
मातम मनाकर एक आतंकी का ,तुमने अल्लाह को
भी शर्मशार किया ..
गर ये सच है तो लगता है ,मैं खुद को संजय
नही मीर लिख दूं..
इस हिन्द ए घाटी को ,हिमालय की
चोटी नही,चोटो की
पीर लिख दूं ..

देख रहा हूं मै भविष्य भारत का ,जिस पर काले झण्डो का साया
है ..
संभल जाओ ऐ हिन्द के वीरो ,नही
तुमने पार न पाया है ....
गर ये सच है तो लगता है ,मै खुद को संजय
नही मीर लिख दूं...
आखिर कैसे मै इस हिन्द ए घाटी को ,भारत
की कश्मीर लिख दूं...

रचनाकार- संजय चौहान

कश्मीर का दर्द (कश्मीर में चल रही ताजा घटनाओं पर कवि विशाल अग्रवाल की कविता )

मैं बुजुर्गों के ख़्वाबों के ताबीर हूँ
जिन्दा जन्नत की मैं एक तस्वीर हूँ
सौ दफा कह चुकी फिर से कहती हूँ मैं 
हां मैं भारत की ही सिर्फ जागीर हूँ
हां मैं कश्मीर हूँ , हाँ मैं कश्मीर हूँ
मेरे बेटों ने दहशत की राहें चुनीं
लड़खड़ाये तो गैरों की बाहें चुनीं
अपने बेटों की गोली से मरते हुए
मैंने अपने ही बेटों की आहें सुनीं
हो गयी है जो अब पर्वतों से बड़ी
और पिघलेगी न ऐसी एक पीर हूँ
हां मैं कश्मीर हूँ , हां मैं कश्मीर हूँ
फक्र से सर हमारा उठाया भी है
बाढ़ आयी तो हमको बचाया भी है
भूल हमने करी चाहे कितनी बड़ी
बाप बनकर के उसको भुलाया भी है
क्या बताऊँ तुम्हें क्या है हालत मेरी
अपने हाथों से खिंचता हुआ चीर हूँ
हां मैं कश्मीर हूँ , हां मैं कश्मीर हूँ
दर्द दिल में दबाये बिलखती रही
मुंह छुपाये हुए मैं सिसकती रही
देख कर अपने बेटों की गद्दारियां
बेटा कहने से उनको हिचकती रही
अपने ही पाँव जिसने हैं जकड़े हुए
जंग खायी हुई ऐसी जंजीर हूँ
हाँ मैं कश्मीर हूं , हां मैं कश्मीर हूँ
कल तलक स्वर्ग थी अब मैं सूनी हुई
गम दिए इस कदर गम से दूनी हुई
मेरी इससे बड़ी बदनसीबी है क्या
सब ये कहते हैं घाटी तो खूनी हुई
गम बहुत हैं मगर मैं बताऊँ किसे
दोनों आँखों से बहता हुआ नीर हूँ
हां मैं कश्मीर हूँ , हां मैं कश्मीर हूं
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रचनाकार-
कवि विशाल अग्रवाल "अग्रवंशी"

Tuesday 12 July 2016

तुम अकेले अगर होगे तो ज़माने के लिए

तुम अकेले अगर होगे तो ज़माने के लिए
मैं हमेशा खड़ा हूँ साथ निभाने के लिए
दोस्ती है तो अगर सच कहूँ तो तुमसे है
दोस्त तो और भी है कितने गिनाने के लिए
रात काजल की तरह आंज ली फिर आँखो नें
जब सुना आ रहे हो ख्वाब सजाने के लिए
तेज़ बारिश है मेरा रेन कोट ले जाओ
जा रहे हो जो अगर लौट के आने के लिए
इससे जियादा तो और कुछ नहीं मैं कर पाया
साथ ही छोड़ दिया साथ निभाने के लिए
ये तो पहले से ही तय कर दिया विधाता ने
मेरे काँधे हैं तेरी डोली उठाने के लिए
जब मिले आसमान सोच समझ कर उड़ना
शोहरतें साथ में चलती हैं गिराने के लिए
बस ज़रा मुस्करा के तू मुझे रुखसत कर दे
फिर न आऊंगा कभी दिल को दुखाने के लिए
ये मेरे शेर , ये अंदाज़े बयां कैसा है
या कहूँ एक ग़ज़ल और मनाने के लिए

Poet: Pramod Tewari Geetkar

थाल पूजा का लेकर चले आइये

थाल पूजा का लेकर चले आइये , मन्दिरों की बनावट सा घर है मेरा।
आरती बन के गूँजो दिशाओं में तुम और पावन सा कर दो शहर ये मेरा।

दिल की धडकन के स्वर जब तुम्हारे हुये
बाँसुरी को चुराने से क्या फायदा,
बिन बुलाये ही हम पास बैठे यहाँ
फिर ये पायल बजाने से क्या फायदा,
डगमगाते डगों से न नापो डगर , देखिये बहुत नाज़ुक जिगर है मेरा।

झील सा मेरा मन एक हलचल भरी
नाव जीवन की इसमें बहा दीजिये,
घर के गमलों में जो नागफनियां लगीं
फेंकिये रात रानी लगा लीजिये,
जुगनुओ तुम दिखा दो मुझे रास्ता, रात काली है लम्बा सफर है मेरा।

जो भी कहना है कह दीजिये बे हिचक
उँगलियों से न यूँ उँगलियाँ मोडिये,
तुम हो कोमल सुकोमल तुम्हारा हृदय
पत्थरों को न यूँ कांच से तोडिये,
कल थे हम तुम जो अब हमसफर बन गये, आइये आइये घर इधर है मेरा।
 
साभार: डॉ विष्णु सक्सेना 

रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा

रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा, एक आई लहर कुछ बचेगा नहीं।
तुमने पत्थर सा दिल हमको कह तो दिया पत्थरों पर लिखोगे मिटेगा नहीं।
मैं तो पतझर था फिर क्यूँ निमंत्रण दिया
ऋतु बसंती को तन पर लपेटे हुये,
आस मन में लिये प्यास तन में लिये
कब शरद आयी पल्लू समेटे हुये,
तुमने फेरीं निगाहें अँधेरा हुआ, ऐसा लगता है सूरज उगेगा नहीं।
मैं तो होली मना लूँगा सच मानिये
तुम दिवाली बनोगी ये आभास दो,
मैं तुम्हें सौंप दूँगा तुम्हारी धरा
तुम मुझे मेरे पँखों को आकाश दो,
उँगलियों पर दुपट्टा लपेटो न तुम, यूँ करोगे तो दिल चुप रहेगा नहीं।
आँख खोली तो तुम रुक्मिणी सी लगी
बन्द की आँख तो राधिका तुम लगीं,
जब भी सोचा तुम्हें शांत एकांत में
मीरा बाई सी एक साधिका तुम लगी
कृष्ण की बाँसुरी पर भरोसा रखो, मन कहीं भी रहे पर डिगेगा नहीं।

साभार: डॉ विष्णु सक्सेना 

तन तुम्हारा अगर राधिका बन सके

तन तुम्हारा अगर राधिका बन सके, मन मेरा फिर तो घनश्याम होजायेगा।
मेरे होठों की वंशी जो बन जाओ तुम, सारा संसार बृजधाम हो जायेगा।

तुम अगर स्वर बनो राग बन जाऊँ मैं
तुम रँगोली बनो फाग बन जाऊँ मैं
तुम दिवाली तो मैं भी जलूँ दीप सा
तुम तपस्या तो बैराग बन जाऊँ मैं
नींद बन कर अगर आ सको आँख में, मेरी पलकों को आराम हो जायेगा।

मैं मना लूँगा तुम रूठ्कर देख लो
जोड लूँगा तुम्हें टूट कर देख लो
हूँ तो नादान फिर भी मैं इतना नहीं
थाम लूँगा तुम्हें छूट कर देख लो
मेरी धडकन से धडकन मिला लो ज़रा, जो भी कुछ खास है आम हो जायेगा।

दिल के पिजरे में कुछ पाल कर देखते
खुद को शीशे में फिर ढाल कर देखते
शांति मिलती सुलगते बदन पर अगर
मेरी आँखों का जल डाल कर देखते
एक बदरी ही बन कर बरस दो ज़रा, वरना सावन भी बदनाम हो जायेगा।

साभार: डॉ विष्णु सक्सेना